भारत के हर कोने में कई तरह की पंरपरा है। खान-पान के अपने नियम है। हर धर्म में भोजन ग्रहण करने के अलग अलग नियम है। की आहारचर्या अचंभित करने वाली है। इनके कठोर नियमों के चलते कई दिनों तक भूखा भी रहना पड़ता है। २4 घंटे में सिर्फ एक बार भोजन और पानी पीते हैं, इसका भी अपना तय समय है। यदि उन्हें निश्चित धारणा नहीं मिलती है, तो वैसे ही वापस लौट जाते हैं। इनकी आहारचर्या इनकी साधना का अहम हिस्सा है। यह स्वाद के लिए भोजन नहीं करते हैं। यह धर्म साधना के लिए भोजन करते हैं। यह साधना आम इंसान के लिए काफी कठिन होती है। 

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जैन साधु जब आहार (भोजन) के लिए निकलते है तो विधि (नियम) लेकर निकलते हैं। पडग़ाहन में श्रद्धालुओं द्वारा शब्दों का उच्चारण किया जाता है। उस दौरान श्रद्धालु मतलब श्रावक के पास नारियल, कलश, लौंग होने का नियम लिया जाता है। नियम के अनुसार ये वस्तु नहीं दिखने पर बिना आहार लिए आ जाते हैं। 





उसके बाद दूसरे दिन फिर वहीं नियम के साथ आहार (भोजन) के लिए वापस निकलते है। यदि नियम नहीं मिलता है, आहार के लिए उस घर में प्रवेश नहीं करते हैं। फिर अगले दिन का इंतजार किया जाता है। 





साधु की आहारचर्या को सिंहवृत्ति कहते हैं। साधु एक ही स्थान पर खड़े होकर दोनों हाथों को मिलाकर अंजुली बनाते हैं, उसी में भोजन करते हैं। यदि अंजुली में भोजन के साथ चींटी, बाल, कोई अपवित्र पदार्थ या अन्य कोई जीव आ जाए तो उसी समय भोजन लेना बंद कर देते हैं। अपने हाथ छोड़ देते हैं। उसके बाद पानी भी नहीं पीते है। इस विधि से भोजन करने से साधु की भोजन के प्रति आसक्ति दूर होती है। 





दिन में एक बार आहार करने के पीछे कई कारण है। शरीर से ममत्व भाव कम करना। धर्म साधना करते समय आलस्य ना आ जाए। इसलिए भोजन को शुद्धता के साथ बनाया जाना बहुत जरूरी होता है। मुनि पूज्य सागर कहते है कि जैन संत स्वाद के लिए भोजन नही करते है। ये धर्म साधना के लिए भोजन करते है। 

-सिद्धार्थ शाह